यमराज की कथा || कल्याण भक्त चरितांक विशेषांक

यमराज की कथा

यमराज की कथा
यमराज की कथा

यमराज जी का संकल्प 

जिनकी जीभ भगवान के मंगलमय गुणों एवं परम पवित्र नाम का सुमिरन नहीं करती जिनका चित भगवान के चरण कमलों का चिंतन नहीं करता जिनका सिर एक बार भी भगवान को प्रणाम करने के लिए नहीं झुका भागवत कर्मों से सर्वथा पृथक रहने वाले केवल उन दुष्टों को ही तुम लोग यहां यमपुरी में लाया करो यह यमराज जी ने अपने दूतों को आदेश दिया है।

जब भी यमदूत हाथ में पास लेकर मृत्यु लोक के मरणासन्न प्राणियों को लेने चलते हैं तभी उन्हें पास बुलाकर उनके कान में यमराज जी समझाते हैं कि जो लोग भगवान की कथा को कहने सुनने में लगे रहने वाले हैं उनके पास तुम मत जाना उन्हें तो तुम छोड़ ही देना क्योंकि मैं दूसरे सब प्राणियों का कर्म का दंड देने वाला स्वामी हूं पर भगवान के भक्तों को दंड देने की शक्ति मुझ में नहीं है मैं उनका स्वामी नहीं हूं।

नित्य देव होने पर भी यमराज जी भगवान सूर्य नारायण के पुत्र हैं वह देव शिल्पी विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा से उत्पन्न हुए हैं उनके शरीर का रंग श्याम वर्ण का है और वह हाथ में भयंकर दंड लिए रहते हैं उनका वाहन भैसा है भगवान ब्रह्मा की आज्ञा से ही प्राणियों के कर्मों के अनुसार फल का निर्णय करने जैसा कठोर कर्म उन्होंने स्वीकार किया वैसे तो वह भगवान के अंश है और कारक पुरुष है कल्पांत तक संयमनीपुरी में रहकर वे जीवो को उनके कर्मानुसार फल का विधान करते रहते हैं।

पुण्यात्मा जीवो को यमराज जी धर्मराज के रूप में बड़े सौम्य दिखते हैं पुण्यात्मा जीव शरीर छोड़ने पर धर्मराज के सौम्य सुंदर शीलवान दूतों द्वारा बड़े सुख एवं आदर पूर्वक संयमनी पहुंचाया जाता है और धर्मराज उसको उसके पुण्य के अनुसार उच्च लोकों में भेजते हैं किंतु पापियों को उग्र रूप में दर्शन देना उन्हें नर्क में डालना आदि भयंकर कर्म भी वह दया से ही करते हैं। यमराज प्रधान भागवताचार्यों में है अतएव उनके द्वारा निष्ठुरता तो संभव ही नहीं है वह तो दंड इसलिए देते हैं जिससे प्राणी पापों से छूट कर पवित्र हो जाए वह शुद्ध होकर फिर पृथ्वी पर जाने योग्य हो और उसे भगवान को पाने का अवसर प्राप्त हो सके जैसे अशुद्ध सोने को अग्नि में तपाते हैं शुद्ध करने के लिए वैसे ही यमराज जी के द्वारा नरक की विविध यातनाएं जीव के पाप कर्मों के फल को दूर करने के लिए ही दी जाती है।

यमराज जी ने अपने दूतों को भक्ति तत्व का उपदेश करते हुए कहा है जीव के समस्त पापों को दूर करने के लिए इतना ही साधन पर्याप्त है कि वह भगवान के दिव्य गुण मंगलमय चरित्र एवं परम पावन नाम का स्मरण करें जो बुद्धिमान पुरुष है वह ऐसा सोचकर भगवान के भजन में ही संपूर्ण भावनाओं के साथ चित को लगाते हैं ऐसे महापुरुष मेरे द्वारा दंड पाने योग्य नहीं है उन्होंने यदि पहले कुछ पाप किया भी हो तो भगवान गुणानुवाद उसका नाश कर देता है।

जो समदर्शी भगवच्छरणागत साधुजन है उनके पवित्र चरित्र तो देवता तथा सिद्धगण भी गाया करते हैं मेरे दूतों भगवान की गदा सदा उनकी रक्षा किया करती है तुम लोग उनके पास मत जाना मेरा कोई सेवक या स्वयं में भी उन्हें दंड देने में समर्थ नहीं निष्किंचन वीतराग परमहंस जन रसज्ञ होकर भगवान के चरण कमलों के जिस मकरंद में निरंतर लगे रहते हैं भगवान मुकुंद के उस पदारविंदंमकरंद से विमुख होकर तृष्णा के द्वारा नरक के द्वाररूप घरों में जो बंधे हैं उन (काम क्रोध परायण स्त्री पुत्र आदि संसारासक्त) पुरुषों को ही तुम लोग यहां यमपुरी में लाया करो।

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