गुरु महिमा के दोहे

गुरु र ब्रह्मा गुरु र विष्णु गुरु र देवो महेश्वरम।
गुरु र साक्षात पारब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः।।
भावार्थः ब्रह्मा विष्णु महेश भी गुरु की महिमा गाते हुए नहीं थकते, तथा पूर्ण ब्रह्म परमेश्वर सारी सृष्टि के रचनहार कुल मालिक जब जीवो के उद्धार के लिए पृथ्वी पर आते हैं, तो वे भी गुरु धारण करते हैं। एवं गुरु की महिमा का गुणगान करते हैं। ऐसे भगवान से भी महान गुरु जी के श्री चरणों में कोटि-कोटि दंडवत प्रणाम है।
ध्यान मूलम गुरु मूर्ति पूजा मूलम गुरु र पदम।
मंत्र मूलम गुरुर वाक्यम मोक्ष मूलम गुरु र कृपा।।
भावार्थः हम अपने इस स्थूल शरीर की चर्म चक्षुओं से उस परमात्मा के दर्शन नहीं कर सकते। इसलिए जब तक हम दिव्य दृष्टि प्राप्त नहीं कर ले तब तक हम अपने गुरुदेव को ही भगवान तुल्य समझ कर उनका ही ध्यान करना चाहिये तथा उनके ही श्री चरणों की पूजा करनी चाहिये तथा उनके बताई गई आज्ञा को शिरोधार्य करना चाहिये, उनके मुख से उच्चारित वाणी ही मंत्र है। ऐसे परम दयालु सतगुरु की कृपा से ही मोक्ष संभव है। गुरु महिमा के दोहे
एकाक्षर दाता जु गुरू जो सेवित नही तास।
पाय जन्म सत श्वान को बहुरि श्वपच घर वास।।
भावार्थ:- एक अक्षर की भी शिक्षा जिस गुरु से प्राप्त हुई है उसका भी जो आदर नहीं करता उसकी आज्ञा की अवहेलना करता है, ऐसे व्यक्ति को सो बार स्वान की योनि मिलती है। यत्पश्चात वह चांडाल के घर जन्म लेता है।
द्रव्य खर्च सतपात्र में जन्म जाय गुरु सेव।
हरि सुमिरण में चित जिहीँ वह पंडित श्रुति भेव।।
भावार्थ:- जिस पुरुष के धन का सदुपयोग सतपात्र के निमित्त हो और जो अपना जीवन गुरु की सेवा में सफल करें एवं चित्र भी भगवान के ध्यान में जोड़ दें वही पूर्ण पंडित है। गुरु महिमा के दोहे
पुछै गुरू तै शुभ शिष्य तदपि ज्ञानवंत होवे निज यधपि।
गुरू निश्चय युत वचन धरै जब देहि शिष्य को परम शांति तब।।
भावार्थः स्वयं जिस सिद्धांत को जानता भी हो फिर भी उसका समाधान गुरु से अवश्य सदा करा लेवें क्योंकि गुरु का निर्णय सदा सत्य एवं सुखदायक होता है।
गुरु कीर्ति को अपरोक्ष करै यश बांधव मीत परोक्ष ररै।
भृत दास जसे करामात गहे अबला सुत ओप कभी न कहे।।
भावार्थः- गुरु जनों की स्तुति उनके सामने करें। मुह पीछे मित्र एवं बांधवो की सराहना करें। काम हो जाने पर दास वर्ग को सराहे, किंतु स्त्री तथा पुत्रों की प्रशंसा कदापि न करें।
तजि गुरू मंत्र दरिद्र ह्वे गुरुहि अवज्ञा घात।
त्यागी देत गुरू मंत्र जो सिद्ध भी नरक ही जात।।
भावार्थः- गुरु के दिए हुए मंत्र को त्याग देने से शिष्य दरिद्र होता है। गुरु जनों का निरादर करना मृत्यु दायक है। सिद्ध पुरुष भी यदि गुरु एवं गुरु मंत्र को त्याग दें तो उसका भी नरक निवास होता है।
गुरू के धन को जन जो हरि है हत तेज विभूति दुखी मरी है।
धर्मादि टरै नरके सु परै उपजे पुनि तै स्वपचादि धरै।।
भावार्थः गुरु के धन को हरण करने से तेज नष्ट होता है, उनका धन नष्ट होता है, दरिद्र एवं रोगी होकर दुर्गति से मृत्यु होती है।
मुग्ध नपुंसक विकल मन बिन विवेक दुर्भाग।
नीच कर्म नीचे ही करें गुरु निंदा में राग।।
भावार्थः गुरु जनों का निंदक दुर्भागी व्याकुल मूर्ख विवेक हीन हो जाता है। और वह नीच नीच कर्म करके दुख पाता है।
ज्ञान शलाका दे बुद्धि अंजन कर है तम अज्ञान विमोचन।
निरावर्ण दृग करें जु श्री गुरु नमो नमो तिहि चरण धारी उर।।
भावार्थः
जिस गुरुदेव ने मूर्खता रूप अंधकार से अंधे हुए पुरुषों को ज्ञान रूप अंजन की सलाह देकर उनकी आंखें खोल दी है उस श्री गुरुवर्य को साष्टांग दंडवत प्रणाम है।
मुझे उम्मीद है दोस्तों गुरु महिमा के यह दोहे आपको जरूर पसंद आए होंगे ऐसी और भी महत्वपूर्ण जानकारी पढ़ने के लिए आप हमारी वेबसाइट विजिट कर सकते हैं अथवा नीचे दी गई समरी पर भी क्लिक करके पढ़ सकते हैं। धन्यवाद !
Nice dohe
Vv nice