खट्वाङ्ग ऋषि की कथा
किं धनैर्धनदैर्वा किं कामैर्वा कामदैरुत।
मृत्युना ग्रस्यमानस्य कर्मभिर्वोत जन्मदैः ॥
(श्रीमद्भा० ११ । २३ । २७)
‘जो मृत्युके फंदेमें जकड़ा है, उस प्राणीके लिये धनसे या धन देनेवालोंसे क्या प्रयोजन। कामनाओंसे तथा कामनाओंको पूर्ण करनेवालोंसे ही उसे क्या लाभ और जन्म देनेवाले (जन्म-मृत्युके चक्रमें डालनेवाले) कर्मोंसे ही उसका क्या हित होना है।’ खट्वाङ्ग ऋषि की कथा
महाराज सगरके वंशमें विश्वसहके पुत्र हुए महाराज खट्वाङ्ग। जन्मसे ही वे परम धार्मिक थे। अधर्ममें उनका चित्त कभी जाता ही नहीं था। उत्तमश्लोक भगवान्को छोड़कर और कोई वस्तु उन्हें स्वभावसे ही प्रिय नहीं थी। न तो स्वर्गादि लोक देनेवाले सकाम कर्मोंमें उनका अनुराग था न लक्ष्मी, राज्य, ऐश्वर्य, स्त्री-पुत्र तथा परिवारमें ही उनकी आसक्ति थी। कर्तव्यबुद्धिसे भगवत्सेवा मानकर ही वे प्रजापालन करते थे।’ खट्वाङ्ग ऋषि की कथा
महाराज खट्वाङ्गने शरणागतकी रक्षाका व्रत ले रखा था। उनका इतना महान् पराक्रम तथा प्रभाव था कि जब भी देवता असुरोंसे पराजित हो जाते, तब महाराजकी शरण लेते। उन दिनों असुर प्रबल हो रहे थे। पराजित होनेपर भी वे बार-बार स्वर्गपर आक्रमण करते थे। महाराजको बार-बार देवताओंकी सहायता करने जाना पड़ता था। एक बार असुरोंको पराजित करके महाराज स्वर्गसे पृथ्वीपर लौट रहे थे. तब देवताओंने उनसे इच्छानुसार वरदान माँगनेको कहा। खट्वाङ्ग ऋषि की कथा
महाराज पहलेसे ही भोगोंसे विरक्त थे। संसारके मिथ्या प्रलोभनोंमें उनकी आसक्ति नहीं थी। उन्होंने सोचा-‘यदि जीवनके दिन अधिक शेष हों, तब तो यह कर्तव्यपालन, राज्यशासनादि ठीक ही हैं; किंतु यदि आयु थोड़ी ही हो तो इस प्रकार भोगोंमें लगे रहना बड़ी मूर्खता होगी। इस मनुष्य-शरीरका पाना कठिन है। इसी शरीरसे भवसागर पार न किया तो फिर पता नहीं, किसकिस योनिमें जाना पड़े। ये देवता भी इन्द्रियोंके वशमें हैं। इनकी इन्द्रियाँ भी चञ्चल हैं। इनकी बुद्धि भी स्थिर नहीं। दूसरोंकी तो चर्चा ही क्या, ये देवगण भी अपने हृदयमें निरन्तर स्थित परमप्रियस्वरूप आत्मतत्त्वको नहीं जानते। जब ये स्वयं आत्मज्ञानरहित हैं, तब मुझे कैसे मुक्त कर सकते हैं।’ यह सब सोचकर उन्होंने देवताओंसे पूछा-‘आपलोग कृपाकर पहले यह बताइये कि मेरी आयु कितनी शेष है।’ खट्वाङ्ग ऋषि की कथा
देवताओंने बताया कि ‘महाराजकी आयु दो घड़ी ही बाकी है।’ जब दो ही घड़ी आयु शेष है, तब भोगोंको लेकर क्या होगा। देवगण दीर्घायु दे सकते थे; किंतु महाराजको शरीरका मोह नहीं था। वे शीघ्रतापूर्वक परम पवित्र भारतवर्षमें पहुँचे और भगवान्के ध्यानमें मग्न हो गये। महाराज खट्वाङ्गका मन एकाग्र भावसे भगवान्में लगा था। शरीर कब गिर गया, इसका उन्हें पतातक न लगा। खट्वाङ्ग ऋषि की कथा
धन्य हैं महाराज खट्वाङ्ग ! महाराजकी आयु तो उस समय दो घड़ी बची थी; किंतु हम सबको तो यह भी पता नहीं कि दो पल भी आयु शेष है या नहीं। भगवान्को पानेमें कुछ दस, बीस या सौ, दो सौ वर्ष नहीं लगते। सच्चे हृदयसे एक बार पुकारनेपर वे आ जाते हैं। चित्तको एकाग्र भावसे उनके चरण-चिन्तनमें लगाकर एक क्षणमें प्राणी उन्हें पा लेता है। खट्वाङ्गजीकी भाँति सिरपर मृत्युको खड़ी देखकर भोगोंसे चित्त हटाकर उसे तुरंत भगवान्के चरणोंमें ही लगा देना चाहिये। खट्वाङ्ग ऋषि की कथा
ओर पड़ने के लिया निसे नजर दे
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